गुरुवार, 9 अगस्त 2012

अवतरण, अन्तरण, विनिमय तथा विभाजन

आसामियों का हित
धारा 38
- आसामी का अपने भूमि-क्षेत्र में हित सिवाय उसके जैसा कि इस अधिनियम में विहित है, हित दाय योग्य (विरासत में जाने योग्य) है किन्तु अन्तरणीय नहीं है।

आसामी अधिकारों का अवतरण
वसीयत
धारा 39
- खातेदार आसामी अपने भूमि क्षेत्र में हित को या हित के भाग को उसके व्यक्तिगत कानून के अनुसार जो उस पर लागू होता है, वसीयतनामा के द्वारा वसीयत में दे सकता है।

लक्ष्मीनारायण बनाम बंशीलाल (आर.आर.डी. 1988 पृष्ठ 23)
केवल मात्र खातेदार काश्तकार अपनी भूमि के संबंध में उसके व्यक्तिगत कानून के अनुसार वसीयत कर सकता है।

आसामियों का उत्तराधिकार
धारा 40
- जब आसामी वसीयतनामा किये बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाय, तो उसके भूमि क्षेत्र में निहित उसके हित उसके उस व्यक्तिगत कानून के अनुसार अवतरण होंगे जिसके कि वह मृत्यु के समय अधीन था।

CASE LAW:-
रामदीन बनाम नूरा (आर.आर.डी. 1961 पृष्ठ 57)
जो काश्तकार 15-10-55 से पूर्व गुजर गया है उसके मामले में विरासतन अधिकारों पर भूतपूर्व रियासतों में प्रचलित विधि व कानून लागू होंगे।

तेजसिंह बनाम प्रभु (आर.आर.डी. 1960 पृष्ठ 169)
हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 कृषि आसामियों पर लागू नहीं होती।

तेजसिंह बनाम प्रभु (आर.आर.डी. 1960 पृष्ठ 169)
प्रहलाद बनाम हुक्मा (आर.आर.डी. 1963 पृष्ठ 170)
कृषि आसामियों पर उत्तराधिकार में व्यक्तिगत कानून लागू होता है। हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रावधान लागू नहीं होते।

भौंरा बनाम गणेश (आर.आर.डी. 1969 )
जब स्थानीय कानून में कोई कृषि आसामियों के उत्तराधिकार का कोई प्रावधान नहीं होता तब इन मामलों में हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रावधान लागू होते हैं।

कालू बनाम नरबदा (आर.आर.डी. 1971)
मृतक खातेदार की विधवा की मोजदूगी में कृषि भूमि पर मृतक के भतीजे का कोई अधिकार नहीं बनता।

रामजीलाल बनाम श्योकोरी (आर.आर.डी. 1987 पृष्ठ 71)
हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानून धारा 40 के प्रावधान के अनुसार लागू होते है। इसके द्वारा किसी रिवाज को नहीं बचाया गया है।

बंशीधर व अन्य बनाम राज्य (आर.आर.डी. 1971 पृष्ठ 15)
अध्याय 4 के अन्तर्गत जो पुराने अनिर्णित मामलें हैं उन पर नए अधिनियम 1973 का पूर्वगामी प्रभाव नहीं है। ऐसे अनिर्णित मामले पुराने कानून के अन्तर्गत ही निर्णित होंगे।

मुसम्मात अमेरी बनाम करीमा (आर.आर.डी. 1984 पृष्ठ 4)
बजिउल-अर्ज में उल्लिखित गाँव की परिपाटी या .........लागू नहीं मानी गई परन्तु मुस्लिम व्यक्तिगत कानून प्रभावी माना गया। निर्णय हुआ कि मृतक मेव (मुस्लिम) की पुत्रियों का आवेदन पत्र अस्वीकार किया गया।

खातेदार के हित का हस्तान्तरण (अन्तरण)
धारा 41
- धारा 42 तथा धारा 43 में उल्लिखित शर्तों के अधीन खातेदार आसामी का हित उप पट्टे के अलावा अन्य तरीके से हस्तान्तरणीय नही होगा।

आर.आर.डी. 1992 पृष्ठ 532
कृषि प्रयोजनों हेतु भूमि का आवंटिती आवंटन की तारीख से 10 वर्ष की कालावधि हेतु गैर खातेदार अभिधारी है और उस पर इस कालावधि के दौरान ऐसी भूमि का कोई दान करने का अधिकार नहीं है।

बलवन्तसिंह बनाम चन्दा (आर.आर.डी. 1979 पृष्ठ 539)
पुनः विवाह करने पर विधवा का अधिकार नष्ट नहीं होता वह अपना हिस्सा अंतरित करने में सक्षमह ै।

विक्रय, दान (गिफ्ट या भंेट) तथा वसीयत पर सामान्य प्रतिबन्ध
धारा 42
- खातेदार आसामी के द्वारा अपने पूर्ण भूमि क्षेत्र में या उसके भाग में हित की बिक्री दान (गिफ्ट) या वसीयत शून्य होगी यदि
(क) विलोपित - दिनांक 11-121-1992 से (फ्रेगमेण्ट से संबंधित था)
(ख) उक्त विक्रय, भेंट या वसीयत अनुसूचित जाति के सदस्य द्वारा ऐसे व्यक्ति के पक्ष में की गई हो जो अनुसूचित जाति का नहीं हो अथवा अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य द्वारा ऐसे व्यक्ति के पक्ष में की गई हो जो अनुसूचित जनजाति का नहीं हो।

बालू बनाम बिरदा (आर.आर.डी. 1983 पृष्ठ 159)
यदि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की भूमि न्यायालय की डिक्री से क्रमशः गैर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की घोषित की जावे तो वह धारा 42 के अन्तर्गत निषिद्ध स्थानान्तरण के अन्तर्गत आ जावेगी।
इस में निर्णय दिया गया कि हस्तान्तरण शब्द का अर्थ विस्तृत है। अतः राजीनामे की डिक्री को भी राजस्थान टीनेन्सी एक्ट की धारा 42 के प्रावधानों के अनुसार हस्तान्तरण ही माना जावेगा।

CASE LAW:-
प्रकरण 1994 आर.बी.जे. 270
अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति की भूमि को स्वर्ण जाति के व्यक्ति को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता । चाहे वह दुरभि संधि डिक्री से ही हो वह शून्य है।

राजस्थान राज्य बनाम राम बक्स (आर.आर.डी. 1983)
इसमें प्रश्न उठा कि क्या अनुसूचित जाति द्वारा अनुसूचित जन जाति के सदस्य को बेची गई भूमि के आधार पर भू-राजस्व नियमों में कोई रोक नहीं है, जो कि धारा 42 के विरूद्ध होती है। इस पर निर्णय हुआ कि इस प्रकार का स्थानान्तरण स्वीकृत नहीं किया जा सकता है जो कि गैर कानूनी है। इस बिन्दु पर विचार नहीं किया गया। अतः चुंकि यह कानून की नजरों में स्थानान्तरण नहीं है। अतः इसकी प्रविष्टि वार्षिक पंजीकाओं में नहीं की जानी चाहिये - जो व्याख्या कानून के प्रावधानों को समाप्त करे उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अतः निर्णय हुआ  िकइस प्रकार का स्थानान्तरण का प्रमाणीकरण नहीं किया जा सकता चाहे कोई निषेध नहीं भी हो और किसी प्रकार के गैर कानूनी स्थानान्तरण की प्रविष्टि वार्षिक पंजीकाओं में नहीं की जा सकती है। इसी निर्णय का 1979 आर.आर.डी. 9 (हाईकोर्ट) ने भी समर्थन किया।

मिल्खासिंह बनाम राज्य सरकार
महेन्द्रसिंह बनाम राज्य सरकार (आर.आर.डी. 1983)
खूमा बनाम मन्दिर पारसनाथ (आर.आर.डी. 1983 पृष्ठ 563)
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का कोई भी आसामी अतिक्रमी को बेदखल करने के लिए धारा 175 के अन्तर्गत कार्यवाही आवश्यक है।

देवीलाल बनाम कमला (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 55)
अनुसूचित जाति की भूमि के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के अन्तर्गत रिसीवर की नियुक्ति की जा सकती है।

राजस्थान राज्य बनाम कन्हैयालाल (आर.आर.डी. 1983)
इसमें प्रश्न उठा कि क्या धारा 42 के अन्तर्गत किया गया स्थानान्तरण रद्द किया जा सकता है। निर्णय हुआ कि धारा 175 के प्रावधानों के तहत ऐसा किया जा सकता है।

विक्रय, दान और वसीयत के विधिमान्य होने की घोषणा
धारा 42 ख
- जहाँ राजस्थान अभिधृति (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1992 के प्रारम्भ से पूर्व किसी खातेदार अभिधारी द्वारा अपनी जोत या उसके किसी भाग में से अपने हित का किया गया कोई विक्रय, दान या वसीयत 1992 के उक्त संशोधन अधिनियम के पूर्व यथा-विद्यमान धारा 42 के खण्ड (क) के उपबन्धों में से किसी के भी उल्लंघन के कारण शून्य थी, वहाँ ऐसा विक्रय, दान या वसीयत कलक्टर या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त सशक्त किसी भी अधिकारी या प्राधिकारी द्वारा उसे ऐसे समय के भीतर भीतर और ऐसी रीति से किये गये आवेदन पर और ऐसी फीस तथा शास्ति के संदाय पर जो विहित की जाये विधिमान्य घोषित की जा सकेगी।

परन्तु यह तब जबकि
(क) ऐसा विक्रय, दान या वसीयत अन्यथा विधिमान्य हो और यथापूर्वोक्त धारा 42 के खण्ड (क) में अन्तर्विष्ट उपबंधों को छोड़कर तत्समय प्रवृत विधियों के उपबन्धों के अनुरूप हो,
(ख) उक्त विक्रय, दान या वसीयत के पक्षकार उन सभी निबन्धनों और शर्तों का अनुपालन करते हों जो नियमों या किसी विशेष या सामान्य आदेश द्वारा विहित की जाये,
(ग) ऐसे प्रीमियम या शास्ति का, जो विहित की जायें, संदाय कर दिया जाये,
(घ) आवेदक ऐसी दर से और ऐसी रीति के अनुसार जो विहित की जाये, उद्गृहीत नगरीय निर्धारण के संदाय की जिम्मेदारी ले लेता है।

बन्धक
धारा 43 (1)
- कोई खातेदार आसामी अथवा राज्य सरकार या उसके द्वारा इस हेतु प्राधिकृत किसी अधिकारी की साधारण या विशेष अनुमति से कोई गैर खातेदार आसामी राज्य सरकार से या राजस्थान सहकारी संस्था अधिनियम, 1965 में यथा परिभाषित किसी भूमि विकास बैंक से या किसी अनुसूचित बैंक से अथवा इस बारे राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी अन्य संस्था से उधार प्राप्त करने के प्रयोजन हेतु अपने पूर्ण भूमि क्षेत्र या उसके किसी भाग में अपने हित का आड़मान कर सकेगा या उसे बन्धक रख सकेगा।

धारा 43 (2) - कोई खातेदार आसामी अपने सम्पूर्ण भूमि क्षेत्र इसके किसी अंश में से अपने हित का भोग-बन्धक के रूप में किसी व्यक्ति को हस्तान्तरण कर सकेगा परन्तु ऐसे बन्धक में यह उप बन्धक होगा कि बन्धक राशि उक्त सम्पत्ति को भोग द्वारा विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर जो पाँच वर्ष से अधिक न हो, संदत्त कर दी गई समझी जायेगी और ऐसी अवधि विनिर्दिष्ट न होने की दशा में उक्त बन्धक पाँच वर्ष के लिए होना समझा जायगा।

परन्तु राजस्थान टीनेन्सी एक्ट, 1970 के राजकीय राजपत्र में प्रकाशन पर या उसके बाद कोई खातेदार आसामी जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, अपने सम्पूर्ण भूमि क्षेत्र या उसके किसी भाग में के अपने हित को किसी ऐसे व्यक्ति को इस प्रकार अन्तरित नहीं करेगा जो किसी अनुसूचित जाति या किसी अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है।

धारा 43 (3) - उप धारा (2) के अधीन कोई भोग बन्धक एतत्पूर्व वर्णित अवधि के  अवसान पर बंधककत्र्ता द्वारा किसी प्रकार कोई भी संदाय किये बिना पूर्णतः चुकाया जा चुका समझा जावेगा तथा बन्धक ऋण निर्वापित हो चुका समझा जायगा और बन्धनकाधीन को समस्त विल्लंगमों से मुक्त रूप मं परिदत्त कर दिया जायगा।

धारा 43 (4) - किसी भूमि का भोग बन्धक जो इस अधिनियम से पहले किया गया हो, उक्त बन्धक विलेख में उल्लिखित अवधि खत्म होने पर या उसके निष्पादन की तारीख से बीस वर्ष बाद जो भी अवधि कम हो, बन्धककत्र्ता द्वारा किसी भी प्रकार का कोई संदाय किये बिना पूर्ण रूप से चुकाया जा चुका समझा जायगा और तदनुसार बन्धक ऋण निर्वापित हो चुका समझा जायगा और तदुपरान्त बन्धकाधीन भूमि का मोचन कर दिया जायगा और बन्धककत्र्ता को सभी विल्लंगमों (भार बोझ) से मुक्त रूप में उसका कब्जा परिदत्त कर दिया जायगा।

धारा 43 (4क) - किसी भूमि का भोग बन्धक जो इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् किया गया हो और राजस्थान टीनेन्सी (संशोधन) अध्यादेश,1974 के शुरू होने की तारीख को प्रभाव में हो, उक्त बन्धक विलेाख में वर्णित समय की समाप्ति पर या उसके निष्पादन की तारीख से पाँच वर्ष बाद जो भी समयावधि पहले समाप्त होती हो, बन्धककत्ता द्वारा किसी भी प्रकार की कोई भरपाई किए बिना पूर्ण रूप से भरपाई किया हुआ समझा जायगा और उसके बाद बन्धक की गई भूमि का मोचन कर दिया जावेगा और बन्धककत्र्ता  को समस्त ऋण भारों से मुक्त रूप में उसका कब्जा सौंप दिया जायगा।

धारा 43 (4ख) - जहाँ उप धारा (2) या उपधारा (4) के अधीन किसी भी अवधि के लिए एक बार भोग बन्धक कर दिया गया है तो प्रथम उल्लिखित बन्धक की समाप्ति के दो वर्ष के अन्दर उसी भूमि का भोगबंधक नहीं किया जायगा।

धारा 43 (4ग) - जहाँ कोई भोग बन्धक राजस्थान टीनेन्सी (संशोधन) अध्यादेश, 1975 के प्रभाव में आने के दिनांक से पहले की दिनांक को ही मोचित हो चुका है तो ऐसी मोचन के कारण बंधकदार बंधककर्ता को ऐसे मोचन की दिनांक तथा ऐसे लागू होने की दिनांक के बीच की अवधि के लिए किसी प्रकार का जुर्माना अथवा अन्तःकालीन लाभ देने का उत्तरदायी नहीं समझा जायगा।

धारा 43 (4घ) - उपधारा (2) या उपधारा (4क) के अन्तर्गत बंधक मोचन हो जाने पर बंधकदार बंधकालीन सम्पत्ति से समस्त अभिलेख जो उसके कब्जे या अधिकार में हों सौंप देगा और सम्पत्ति को बंधककर्ता को पुनः हस्तान्तरित कर देगा और अपने खर्चें पर बंधक मोचन की दिनांक से तीन माह के अन्दर बंधक तथा उसके स्वयं के द्वारा या उसके अधीन दावा करने वालों के द्वारा प्राप्त समस्त ऋण भारों से मुक्त, सम्पत्ति पर बन्धककर्ता को कब्जा करा देगा।

परन्तु उन मामलों मंे जहाँ उपधारा (4क) के अन्तर्गत भोगबंधक का मोचन राजस्थान टीनेन्सी (संशोधन) अध्यादेश, 1975 के प्रभाव में आने की दिनांक से पहले की किसी दिनांक को हो चुका है, उनमें उपरोक्त अभिलेखों का देना, सम्पत्ति का पुनः हस्तान्तरण तथा कब्जा दिया जाना, जब तक कि पहले से समापन नहीं हो गया हो, राजस्थान टीनेन्सी (संशोधन) अधिनियम, 1976 के लागू होने की दिनांक से तीन माह में कर दिया जायगा।

धारा 43 (4ङ) - कोई बन्धकदार जो बिना समुचित कारण के उपधारा (3घ) में उल्लिखित तीन माह की अवधि में बंधककर्ता को सम्पत्ति पर कब्जा कराने में असफल रहता ह, सिद्ध दोष होने पर कारावास से जिसकी अवधि एक वर्ष तक हो सकती है, जुर्माने से जो एक हजार रूपयों तक हो सकता है या दोनों से दण्डनीय होगा। यह अपराध संज्ञैय जमानती और बंधककर्ता द्वारा क्षमनीय होगा।

धारा 43 (5) - उपधारा धारा 43 (4ङ) के उपबन्धों पर विपरीत प्रभाव डाले बिना यदि बंधकदार बंधक की हुई भूमि का कब्जा इस प्रकार पुनः नहीं सौंपता तो वह धारा 183 (क) के अनुसार बेदखल किया जाने के लिये दायी होगा।

CASE LAW:-
भवरीया बनाम छीतर ( आर.आर.डी. 1987 पृष्ठ 468)
बन्धक की अवधि समाप्त हो जाने के बाद बन्धककर्ता बन्धकग्रहीत से बिना किसी भुगतान के कब्जा पाने का अधिकारी होता है।

दुर्गालाल बनाम मु. गुलाब बाई ( आर.आर.डी. 1988 पृष्ठ 52)
दिनांक 5-4-61 को 20 साल से ऊपर की अवधि का बन्धक प्रभाव में ऐसे मामले में दिनांक 5-4-61 को बन्धकग्रहीता अतिक्रमी हो जाता है। ऐसे मामले में धारा 183 के अन्तर्गत 12 साल की अवधि तक दावा लाया जा सकता है।

अधिनियम के लागू होने से पूर्व किये गये कृषि भूमि के बन्धकों के संबंध में उपबन्ध
धारा 43क (1)
- धारा 43 में उल्लिखित किसी बात के होते हुए, अधिनियम के प्रभाव में आने से पूर्व किसी आसामी के भूमि क्षेत्र के बंधक भोग-बंधक से अन्य और ऐसे बंधक के पक्षकारों के अधिकार एवं  देयतायें इस अधिनियम में उल्लिखित किसी बात के होते हुए भी उसकी शर्तों से तथा उक्त प्रभाव आने से प्रचलित तत्संबंधी कानून से शासित होती रहेंगी।

धारा 43क (2) - ऐसा कोई अधिकारिता या देयता, अधिकारिता रखने वाले सहायक कलक्टर के न्यायालय में निश्चित समयावधि यदि कोई हो, के भीतर, परिवेदित व्यक्ति द्वारा निर्धारित न्यायालय शुल्क देने पर, पेश किये गये वाद के द्वारा प्रभावशील कराया जा सकता है।

CASE LAW:-
गफ्फारन अली बनाम बिसमिल्ला (आर.आर.डी. 1958 पृष्ठ 300)
नत्थु बनाम चूमा, महरान बनाम राजू (आर.आर.डी. 1960 पृष्ठ 141)
यह धारा उन रहन पर लागू नहीं होती जो धारा के प्रभाव से पूर्व सम्पादित हुए हैं।

रूपचन्द बनाम श्रीमति रूपा (आर.आर.डी. 1969 पृष्ठ 141)
इस धारा का प्रमुख उद्देश्य काश्तकारों के हितों की रक्षा करना है तथा उसी प्रकार इसकी व्याख्या वांछित है।

बालमुकुनन्द बनाम माँगीलाल (आर.आर.डी. 1961 पृष्ठ 258)
यदि राहिन का कब्जा रहनकर्ता को वापिस नहीं देता तो उसे कानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए बल्कि दावा बेदखली करना चाहिए।

सुमेरमल राजमल बनाम रामचन्द्र (आर.आर.डी. 1965 पृष्ठ 258)
जब 20 वर्ष बाद रहन पत्र की अवधि समाप्त हो जाती है तो रहिन को बिना किसी भार के कब्जा रहनकर्ता को देना चाहिए।

मगंला बनाम पारा (आर.आर.डी. 1968)
आसामी को 20 वर्ष पूर्व रहननामा की भूमि की बेदखली का दावा लाने का अधिकार नहीं है।

गोपाल बनाम मदनलाल (आर.आर.डी. 1972 पृष्ठ 29)
जब रहन का कर्जा अदा कर दिया जाता है तथा रहन का समय समाप्त हो जाता है, राहिन फिर भी भूमि पर कब्जा रखता है तो वह अतिक्रमी है और बेदखल किया जा सकता है।

आंकार बनाम तोलीराम (आर.आर.डी. 1972 पृष्ठ 258)
रहन की अवधि से पूर्व दावा दायर नहीं किया जा सकता है।

जगदम्बा बनाम नाहरमल (आर.आर.डी. 1973 पृष्ठ 502)
इस धारा के अन्तर्गत राहिन को किसी विकास व्यय की प्राप्ति का अधिकार नहीं है क्योंकि रहन का धारा (1) के अन्तर्गत पूर्ण भुगतान माने जाने का प्रावधान है। 

खेमा बनाम खेमा (आर.आर.डी. 1964 पृष्ठ 94)
खेमा बनाम पीथा (आर.आर.डी. 1965)
नत्थू बनाम चूना (आर.एल.डब्ल्यू. 1958 पृष्ठ 300)
रहन के संबंध में दावा सुनने का अधिकार इस धारा के अन्तर्गत राजस्व न्यायालय को है।

गोपीलाल बनाम रामकल्याण (आर.आर.डी. 1975 पृष्ठ 76)
यदि रहन नामा पंजीबद्ध नहीं है तो वह शहादत में अमान्य है। अमान्य दस्तावेज के तथ्य अन्य शहादत से प्रमाणित नहीं किये जा सकते।

सरया बनाम नारायण (आर.आर.डी. 1976 पृष्ठ 281)
रहन की केवल जमाबन्दी में प्रविष्टि पर्याप्त नहीं है। वादी को यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि रहन संशोधनीय ;तमकममउंइसम द्ध है।

मिर्जा नसीर बेग बनाम बक्शा (आर.आर.डी. 1960 पृष्ठ 35)
रहननामा को जो इस धारा के पूर्व निष्पादित किया गया है यह धारा प्रभावित नहीं करती।

देवला बनाम विजयसिंह (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 428)
धारा 43 बंधकदार का उपकृषक खातेदारी प्राप्त कर सकता है।

भैरूलाल बनाम श्यामसुन्दर (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 446)
धारा 43 यदि बंधकता बात किसी कार्यवाही से अंगीकृत कर ली गई है तो बंधक विलेख सिद्ध होता है।

उगमकंवर बनाम पोकरसिंह (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 439)
धारा 43 (1) बन्धक दिनांक 7-12-1956 को निष्पादित किया गया बंधक मोचन के लिये कोई अवधि नहीं होने पर 10 वर्ष पश्चात् बंधक स्वतः ही बंधक मोचन के लिये दावा करने योग्य होगा।

नानालाल बनाम हरचन्द (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 204)
ंबधक पंजीकृत लेख के द्वारा दिनांक 5-6-38 को किया गया। 20 वर्ष की समयावधि 5-6-38 से ही गिनी जायेगी।

पूरनमल बनाम चन्दा (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 226)
मूल बंधक के दिनांक के संबंध में जाँच करना अनावश्यक है। बंधक मोचन कानून के प्रवर्तन द्वारा है।

दानसिंह बनाम हरली (आर.आर.डी. 1982 पृष्ठ 3)
कब्जे के लिये दावा के लिए बंधक मोचन के अधिकार पर कोई रोक नहीं है।

काश्त या शिकमी काश्त पर देने का अधिकार
धारा 44
- खुदकाश्तधारी काश्त पर तथा आसामी शिकमी काश्त पर अपने सम्पूर्ण भूमि क्षेत्र या उसके किसी अंश को ऐसे प्रतिबन्धों के अधीन रहते हुए जो कि इस अधिनियम द्वारा लगाये गये हैं, दे सकता है।
परन्तु उक्त प्रकार शिकमी-काश्त पर देने से आसामी अपने भूमिधारी के प्रति अपनी जिम्मेदारी से किसी भी भांति मुक्त नहीं हो जायगा।

काश्त तथा शिकमी काश्त पर दिये जाने पर प्रतिबन्ध
धारा 45 (1)
- कोई खुदकाश्तधारी (या भू-स्वामी) काश्त पर और कोई खातेदार आसामी अथवा उसका बंधकग्रहीता शिकमी-काश्त पर अपने पूरे भूमि क्षेत्र को या उसके किसी भाग को, किसी एक समय पर पाँच वर्ष से अधिक समय के लिए नहीं देगा।

धारा 45 (2) - जहाँ कोई पट्टा (लीज) या शिकमी पट्टा (सब लीज) किसी भी अवधि के लिए उप धारा (1) के अन्तर्गत एक बार स्वीकृत कर दिया गया हो तो, उसी भूमि के संबंध में कोई अग्रेतर (अग्रिम) पट्टा या शिकमी-पट्टा, यथास्थिति, प्रथमतः वर्णित पट्टे या शिकमी-पट्टे की समाप्ति के पश्चात् दो वर्ष के अन्दर नहीं दिया जायगा।

धारा 45 (3) - कोई गैर खातेदार आसामी अपने पूूरे भूमि क्षेत्र या उसके किसी भाग को एक वर्ष से अधिक समय के लिये शिकमी काश्त के लिये नहीं देगा।

धारा 45 (4) - कोई शिकमी-आसामी या खुदकाश्त का आसामी अपने पूरे भूमि क्षेत्र या उसके किसी भाग को, धारा 46 में उल्लिखित परिस्थितियों के अलावा अन्यथा शिकमी काश्त पर नहीं देगा।

CASE LAW:-
खींवा बनाम भूराराम (आर.आर.डी. 1961 पृष्ठ 253)
काश्तकार व उपकाश्तकार एवं अन्य किसी व्यक्ति को बिना भूमिधारी की अनुमति के उप कृषक को भूमि देने का अधिकार नहीं है।

शंकरलाल बनाम श्रीकिशन  (आर.आर.डी. 1962 पृष्ठ 326)
इस धारा में जो प्रावधान है उसके लिए धारा 183 के अन्तर्गत दावा बेदखली दायर किया जा सकता है।

यादराम बनाम विटोबाई (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 147)
पाँच वर्ष बीत जाने पर उपकृषक को विधवा की भूमि पर  बने रहने के कोई अधिकार नहीं है।

खेमचन्द बनाम कौशल (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 647)
सम्वत् 2014 में प्रतिवादी को उपकाश्तकार स्वीकार किया है। पट्टा धारा 45 के विपरीत है व अतिक्रमण है।

अपवाद स्थिति में भूमि का काश्त पर या शिकमी-काश्त पर दिया जाना
धारा 46 (1)
- धारा 45 में, खुदकाश्तधारी या भू-स्वामी द्वारा काश्त पर दिये जाने तथा आसामी द्वारा शिकमी-काश्त पर दिये जाने पर लगाये गये  प्रतिबन्ध निम्नलिखित पर लागू नहंी होंगेः-
(क) अवयस्क् या
(ख) पागल या
(ग) मूर्ख याा
(घ) ऐसी स्त्री जो अविवाहिता है या जिससे विवाह-विच्छेद कर दिया गया है या जो पति से पृथक हो गई है या विधवा है या
(ङ) ऐसा व्यक्ति जो, नेत्रहीन या अन्य शारीरिक निर्योग्यता या अशक्ति के कारण अपनी भूमि में कृषि करने में समर्थ नहीं है, या
(च) ऐसा व्यक्ति जो संघ की सशस्त्र सेना का सदस्य है, या
(छ) ऐसा व्यक्ति जो कारागृह में अवरूद्ध या बन्दी है, या
(ज) ऐसा व्यक्ति जिसकी आयु 25 वर्ष से अधिक नहीं है तथा किसी मान्यता प्राप्त संस्था में अध्ययन करने वाला विद्यार्थी है।
परन्तु जहाँ किसी भूमि को एक से अधिक व्यक्ति मिलकर धारण करते हैं, उस अवस्था में इस धारा के प्रावधान तब तक ंलागू नहीं होंगे जब तक वे सब व्यक्ति इसमें निर्दिष्ट प्रकारों में से किसी एक या अधिक प्रकार के न हों।

धारा 46 (2) - कोई पट्टा या शिकमी-पट्टा जो उपधारा (1) के उपबन्धों की अनुपस्थिति में अमान्य होना पट्टाधारी की मृत्यु हो जाने या उसके तदन्र्गत निर्दिष्ट  प्रकारों में से किसी के अन्तर्गत न रहने के पश्चात् दो वर्ष से अधिक समय के लिये प्रभावशील नहीं रहेगा।

CASE LAW:-
भूराराम बनाम दौलतसिंह (आर.आर.डी. 1968 पृष्ठ 537)
यदि भूमि फौजमें सेवारत कर्मचारी की है तो उस पर इस धारा के प्रावधान लागू नहीं हैं।

दीनदयाल बनाम मेरा (आर.आर.डी. 1970 पृष्ठ 298)
राज्य बनाम जेठमल व्यास (आर.आर.डी. 1973 पृष्ठ 702)
राज्य बनाम मांगीलाल (के. एस. 1973)
सचिव शांति वर्द्धमान पेढी बनाम घीसालाल (आर.आर.डी. 1971 पृष्ठ 1)
मन्दिर की भूमि पर पुजारी को खातेदारी अधिकार नहीं दिए जा सकते क्योंकि मन्दिर धारा 46 में वर्णित अयोग्यता रखता है तथा ऐसी भूमि पर कोई कृषक व उपकृषक खातेदारी अधिकार पाने का अधिकारी नहीं है।

रामकृष्णदास बनाम देवीलाल (आर.आर.डी. 1974 पृष्ठ 290)
नाबालिग की खातेदारी भूमि पर कृषक या उपकृषक को खातेदारी अधिकार नहीं दिये जा सकते।

मूर्ति श्रीनाथ बनाम शम्भू (आर.आर.डी. 1987 पृष्ठ 336)
धारा 180 के अन्तर्गत मन्दिर मूर्ति की भूमि के संबंध में प्रस्तुत किया गये प्रार्थना पत्र के लिये किसी प्रकार की कोई सीमा नहीं है।

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के सदस्यों द्वारा काश्त या शिकमी-काश्त पर दिये जाने के लिये विशेष प्रावधान
धारा 46क
- धारा 44, 45 तथा 46 में उल्लिखित किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जन जाति का सदस्य है, अपने सम्पूर्ण भूमि क्षेत्र या उसके किसी भाग को काश्त, शिकमी काश्त के लिये उक्त धाराओं के तहत किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देगा जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जन जाति का सदस्य नहीं है।

मोहम्मद जमनखां बनाम मनजी (आर.आर.डी. 1968 पृष्ठ 219)
उमा बनाम कजोड (आर.आर.डी. 1970 पृष्ठ 387)
यह धारा पूर्वगामी प्रभाव नहीं रखती।

राज्य बनाम रामजीलाल व अन्य (आर.आर.डी. 1977 पृष्ठ 57)
यदि किसी अनुसूचित जाति व जन जाति की भूमि पर 15-10-55 को अनुसूचित जाति व जनजाति के सदस्य का वार्षिक अभिलेख में उपकृषक का इन्द्राज है तो उसे धारा 19 के अन्तर्गत खातेदारी अधिकार प्राप्त होंगे।

स्टेट बनाम भोला (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 666)
यह धारा 22-9-56 को प्रभाव में आई है इससे पूर्व के उपकृषक को खातेदारी मिल सकती है।

माधो बनाम नन्दलाल (आर.आर.डी. 1979 पृष्ठ 7)
मन्दिर की मूर्ति साश्वत किशोर होती है। इस अवयस्कता के कारण मन्दिर की भूमि पर उपकृषक को खातेदारी नहीं मिल सकती।


शिकमी पट्टे से उत्तराधिकारी का पाबन्द होना
धारा 47
- किसी आसामी जिसने भूमि शिकमी काश्त पर दी हो, के हित का उत्तराधिकारी शिकमी पट्टे की शर्तों से उस सीमा तक जहाँ तक कि वे इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रतिकूल न हो, पाबन्द होगा।


आबू,अजमेर तथा सुनेल क्षेत्र में कतिपय हस्तान्तरणों के संबंध में प्रावधान
धारा 47क (1)
- इस अधिनियम के पूर्वोक्त प्रावधानों में कृषि अधिकारों के हस्तान्तरण के विषय में उल्लिखित कोई बात आबू, अजमेर या सुनेल क्षेत्रों में राजस्थान राजस्व विधियाँ (विस्तार) अधिनियम, 1957 के प्रारम्भ से पूर्व विधि अनुकूल सम्पन्न किये गये या किसी आसामी के भूमि क्षेत्र के विक्रय, बंधक, पट्टे या अन्य हस्तान्तरण पर लागू नहीं होगी और ऐसे प्रत्येक अन्तरण के पक्षकारों के अधिकार तथा दायित्व इस अधिनियम में उल्लिखित किसी बात के होते हुए उक्त हस्तान्तरण की शर्तों तथा उक्त प्रारम्भ से ठीक पूर्व प्रवर्तनशील तत्संबंधी कानून से शासित होती रहेंगी।

धारा 47क (2) - धारा 43 क की उपधारा (2) के प्रावधान ऐसे प्रत्येक अधिकार अथवा दायित्व की क्रियान्विति पर यथोचित परिवर्तनों के साथ लागू होंगे।

भूमि का विनिमय
धारा 48 (1)
- एक ही वर्ग के आसामी, ऐसी भूमियों का जो उन्होंने एक ही भूमिधारी से प्राप्त की हों, उस भूमिधारी की सहमति से विनिमय कर सकते हैं और ऐसी भूमियों को जो उन्होंने भिन्न-भिन्न भूमिधारियों से प्राप्त की हों ऐसे सभी भूमिधारियों की लिखित सहमति से विनिमय कर सकते हैं।

धारा 48 (2) - भूमिधारी, आसामी की सहमति से, उसके भूमिक्षेत्र में शामिल भूमि के विनिमय में उसे उस भूमि से भिन्न भूमि दे सकता है जो उसे पट्टे पर दी गई है।

व्याख्या - एक काश्तकार एवं भूमिधारी के मध्य भूमि का विनिमय हो सकता है। मुख्य कृषक एवं शिकमी काश्तकार के मध्य भी भूमि का विनिमय सम्भव है। भूमि का विनिमय तब ही पूरा माना जावेगा जब कि वह भूमिधारी द्वारा स्वीकृत हो जवे।

CASE LAW:-
जैसाराम बनाम प्रेमाराम (आर.आर.डी.  1958 पृष्ठ 178)
बीकानेर राज्य के विनिमय नियम दिनांक 11-12-1944 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1955 के प्रभावशील होने की तिथि से निरस्त माने जायेंगे।

पारवी बनाम नाथी (आर.आर.डी. 1980 पृष्ठ 243)
भूमि विनिमय के अधिकार केवल सहायक जिलाधीश को हैं। तहसीलदार विनिमय नहीं कर सकता।

विशम्भरसिंह बनाम राज्य (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 62)
राजकीय भूमि के विनिमय के लिये तहसीलदार भूमिधारी नहीं है। केवल राज्य सरकार ही इसके लिए सक्षम है।

मिर्चू बनाम राजस्थान राज्य (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 558)
धारा 48 आपसी सहमति से किये गये विनिमय के मामलों में लागू होता है। अधिकार के रूप में भूमि का विनिमय नहीं किया जा सकता है।

शंकरलाल बनाम मुख्तारसिंह (आर.आर.डी. 1982 पृष्ठ 503)
सम्पत्ति के दो विभिन्न जगहों पर स्थित होने पर धारा 48 लागू नहीं होगी।

गोपालराम बनाम बनेसिंह (आर.आर.डी. 1989 पृष्ठ 364)
राजकीय भूमि के विनिमय की स्वीकृति राज्य सरकार द्वारा ही दी जा सकती है।

रामदेव बनाम शिशुपाल (आर.आर.डी. 1989 पृष्ठ 7)
मौखिक रूप से किया गया भूमि का विनिमय कोई प्रभाव नहीं रखता है।

चकबन्दी के लिए विनिमय
धारा 49 (1)
- कोई खातेदार आसामी जो अपने क्षेत्र की चकबंदी कराना चाहता है जिसमें वह कृषि करता है, अपनी भूमि के किसी भाग जिसमें वह कृषि करता है, के बदले में किसी अन्य खातेदार आसामी द्वारा कृषि भूमि लेने के लिए सहायक कलक्टर को प्रार्थना पत्र दे सकता है।

धारा 49 (2) - उपधारा (1) के अधीन प्रार्थना पत्र की प्राप्ति पर, यदि सहायक कलक्टर को निर्धारित तरीके से जाँच करने के बाद समाधान हो जाय कि उचित कारण विद्यमान है तो वह प्रार्थना को पूर्णतः या अंशतः स्वीकार कर सकता है तथा दूसरे आसामी को आवेदक द्वारा काश्त की गई ऐसी भूमि दे सकता है जो मूल्य में लगभग उस भूमि के बराबर तथा उसी प्रकार की हो जो कि आवेदक को मिली हो।

अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों द्वारा विनिमय के लिए विशेष प्रावधान
धारा 49क
- घारा 48 तथा धारा 49 में अन्तविषर््िट किसी प्रावधान के होते हुए भी किसी काश्तकार को जो कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जन जाति का सदस्य है अपने भूमि क्षेत्र का विनिमय उक्त धाराओं में से किसी के अधीन ऐसी भूमि से करने का अधिकार नहीं होगा जो कि ऐसे व्यक्ति को भूमि में शामिल है जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जन जाति का सदस्य नहीं है और जो धारा 49 के अन्तर्गत कोई आवेदन पत्र जो इस धारा के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, अस्वीकृत किया जायेगा।

विनिमय हो जाने पर आसामियों के अधिकार
धारा 50
- धारा 48 तथा धारा 49 के अन्तर्गत भूमि का विनिमय हो जाने पर काश्तकार को उस भूमि में जो उसे विनिमय में मिली है वे ही अधिकार प्राप्त होंगे जो कि उसे उस भूमि में प्राप्त थे जो उसने विनिमय में दी है।

अन्य भूमियों के विनिमय में आवंटित भूमियों में अधिकार
धारा 51
- तत्समय प्रभावशील किसी कानून में किसी प्रावधान के होते हुए भी यदि अन्य भूमि के बदले में दी गई भूमि किसी लीज, बंधक या अन्य ऋणभार से बोझित है तो उक्त लीज, बंधक या अधि-भार का हस्तान्तरण कर दिया जायेगा और उसे उक्त अन्य भूमि के साथ या उसके ऐसे भाग जिसे सहायक कलक्टर विनिर्दिष्ट करे, के साथ संलग्न कर दिया जायेगा और उसके बाद पट्टाधारी, बंधकग्रहीता या अन्य ऋणभारधारी का उस भूमि में या उसके विरूद्ध कोई अधिकार नहीं रहेगा जिससे उक्त पट्टा, बंधक या अन्य ऋणभार हस्तान्तरित किया गया हो।

परन्तु इस धारा के अन्तर्गत कोई आदेश संबंधित पक्षकारों को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान किये बिना पारित नहीं किया जायेगा।

अधिकार अभिलेख में विनिमय की प्रविष्टि
धारा 52
- धारा 48 या धारा 49 के अन्तर्गत भूमि के विनिमय पर उसके संबंध में अधिकार अभिलेख में समुचित प्रविष्टि की जायेगी।

काश्तकारी अधिकारों का विभाजन
धारा 53 (1)
विलोपित (दिनांक 11-11-92 से-इसमें न्यूनतम क्षेत्रफल से कम में भूमि के बंट जाने के प्रकरणों में विभाजन नहीं किया जा सकता था-फ्रेगमेण्ट जैसी स्थिति)

धारा 53 (2) किसी भूमि क्षेत्र का विभाजन निम्नलिखित प्रकार से किया जायेगा-
(1) सह आसामियों के बीच
(क) भूमि क्षेत्र के वैसे विभाजन, और
(ख) उन कई भागों, जिनमें भूमि क्षेत्र इस प्रकार विभाजित किया गया है पर लगान के बंटवारे के संबंध में इकरारनामा द्वारा, अथवा
(2) भूमि क्षेत्र के विभाजन तथा कई भागों में वह विभाजित की जाए उन पर कई भागों पर उस भूमि क्षेत्र के लगान के बंटवारे किये जाने के हेतु सह-आसामियों में से एक या अधिक सह-आसामियों द्वारा दायर किये गये दावे में सक्षम न्यायालय द्वारा पारित डिक्री अथवा आदेश के द्वारा

धारा 53 (3) विलोपित दिनांक 11-11-92 से

धारा 53 (4) एक या एक से अधिक भूमि-क्षेत्र के विभाजन हेतु प्रत्येक दावे में सभी सह-आसामी तथा भूमिधारी पक्षकार बनाये जायेंगे।

धारा 53 (5) एक से अधिक भूमि-क्षेत्रों में बंटवारे हेतु एक ही दावा किया जा सकता है बशर्ते कि उसमें पक्षकार वे ही हों।

CASE LAW:-
रामप्रताप बनाम गुलाब देवी (आर.आर.डी. 1971 पृष्ठ 129)
इस धारा के अन्तर्गत पुत्री द्वारा मृतक की भूमि पर विभाजन का दावा प्रस्तुत किया जा सकता है क्योंकि उसे विरासतन हक प्राप्त होते हैं।

श्री कृष्ण चन्द्र बनाम तहसीलदार उपनिवेशन (आर.आर.डी. 1974 पृष्ठ 271)
श्री लालाराम बनाम श्रीमति मुकन्दी (1974 के.एस. 123)
धन्नालाल बनाम श्रीमति बद्री (आर.आर.डी. 1975 पृष्ठ 429)
धारा 53 के अन्तर्गत प्रस्तुत विभाजन वाद में राज्य सरकार आवश्यक पक्ष है, किन्तु राज्य सरकार को दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के तहत नोटिस दिया जाना आवश्यक नहंी है।

कैसा बनाम दाना (आर.आर.डी. 1964 पृष्ठ 290)
राज्य सरकार को इस कारण पक्षकार बनाया जाता है ताकि विभाजन के न्यूनतम क्षेत्रफल से कम क्षेत्रफल तक विभाजन न हो सके।

मदनसिंह बनाम श्रीमति गुमानी (आर.आर.डी. 1973 पृष्ठ 724)
इस धारा के अन्तर्गत विभाजन पर राजस्थान काश्तकारी (राजस्व मण्डल) नियम, 1955 तथा दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 54 व 97 के प्रावधान लागू होंगे।

सोहनलाल बनाम पुरूषोत्तमलाल (आर.आर.डी. 1973 पृष्ठ 319)
विभाजन के वाद पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रावधान लागू नहीं होते।

सुरजा बनाम जीवन व अन्य (आर.आर.डी. 1975 पृष्ठ 52)
धारा 53 के अन्तर्गत प्रत्येक हित रखने वाले व्यक्ति को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक है चाहे उसका नाम भू-अभिलेख में दर्ज हो अथवा नहीं।

राज्य बनाम छितर एवं अन्य (आर.आर.डी. 1976 पृष्ठ 421)
ऐसे व्यक्तियों के मध्य जिसका नाम भू-अभिलेख में बतौर सहभागी अंकित नहीं है भू-विभाजन नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा वाद प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।

खेतसिंह बनाम सोहनकंवर (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 664)
प्राईवेट विभाजन को धारा 53 के अन्तर्गत विभाजन का एक मात्र आधार नहीं माना जा सकता।

केसरबाई बनाम नाथूलाल (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 317)
विभाजन के लिए वाद लाने हेतु धारा 80 सी.पी.सी. का नोटिस आवश्यक नहीं।

रामली बनाम हरमुख (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 576)
विभाजन का वाद लाने हेतु एवं डिक्री प्राप्त करने हेतु भूमिधारी की स्वीकृति आवश्यक है।

मुन्नी बनाम हरा (आर.आर.डी. 1979 पृष्ठ 98)
भूमिधारी को पक्षकार न बनाना गम्भीर त्रुटि है। यह अभाव वाद को क्षति पहुँचाता है। वाद नहीं चल सकता।

धेली बनाम गोपाल (आर.आर.डी. 1978 पृष्ठ 628)
बिना विभाजन सहकृषक अपने भाग को बेच सकता है। अन्य भागीदारों की सहमति आवश्यक नहीं।

परमानन्द बनाम बेरूलाल (आर.आर.डी. 1981 पृष्ठ 523)
बंटवारे के दावे के अन्तर्गत अनुतोष एक उपकाश्तकार की प्रार्थना पर ही दिया जा सकता है हालांकि प्रतिवादी को पूछा नहीं गया हो।

जीवा बनाम नारा (आर.आर.डी. 1982 पृष्ठ 158)
जहाँ वादी उपकाश्तकार दर्ज नहीं है मामला स्वीकार योग्य धारण किया।

राजस्थान राज्य बनाम नारायण (आर.आर.डी. 1985 पृष्ठ 694)
यदि धारा 53 के अन्तर्गत विभाजन पूर्व में ही कर दिया गया है और उसके अनुसार भूमि पर कब्जा कर लिया है तो पुनः विभाजन या खातेदारी की आवश्यकता नहीं है।

सेक्रेट्री मेयोकालेज बनाम भारतीय संघ (आर.आर.डी. 1986 पृष्ठ 283)
धारा 53 के अन्तर्गत केवल मात्र सहकाश्तकार के द्वारा ही वाद लाया जा सकता है।

जगन्नाथ बनाम भंवरलाल (आर.आर.डी. 1987 पृष्ठ 348)
पंच फैसला प्रभाव में होते हुए समायोजन या करार महत्वपूर्ण नहीं है, जब तक कि उसे तहसीलदार के समक्ष लिखित में प्रस्तुत नहीं किया गया हो।

श्रीमति रामचन्द्री बनाम मु. तुलसी (आर.आर.डी. 1987 पृष्ठ 473)
विभाजन के समय राजस्व न्यायालय गोद के तथ्यों को ध्यान में रख सकता है।

श्रीमति कंचन बनाम श्रीमति केसरदेवी (आर.आर.डी. 1988 पृष्ठ 661)
विभाजन के दावे में प्रत्येक व्यक्ति अपने हिस्से के लिये वाद ला सकता है तथा वाद में आवश्यक पार्टी बन सकता है तथा आदेश 1 नियम 10 के अन्तर्गत प्रस्तुत किये गये पक्षकार संबंधी प्रार्थना पत्र को खारित नहीं किया  जा सकता है।

राजस्थान राज्य बनाम लक्ष्मीनारायण (आर.आर.डी. 1989 पृष्ठ 121)
विभाजन सहकाश्तकार के मध्य ही हो सकता है और ऐसे विभाजन लिखित में तथा भूमिधारी तहसीलदार की परमिशन से ही हो सकता है।

रामनारायण व अन्य बनाम बिरधा व अन्य (आर.आर.डी. 1984)
समस्त सह आसामियों का कब्जा भूमि के प्रत्येक इंच पर माना जाता है इसलिये एक सहआसामी के कब्जे को अन्य सहआसामियों के विरूद्ध नहीं माना जा सकता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मन्दिर के नाम आरजी भूमि को किसी कृषक को आंवटन कराने का अधिकार है या नही अगर कोई व्यक्ति अपने नाम आंवटन करवाकर आगे विक्रय करता है अथवा बैचान कर दी गई है इस संबंध मे जानकारी

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  2. according to this act you have rights to challenge the sale deed

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